आर्ष पुस्तकालय
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ट्रेक्ट / लेख :- वेदकालीन पर्व पद्धति,
लेखक :- आचार्य उदयन मीमांसक जी,
पृष्ठ :- ११ (11),
प्रकाशन :- आर्य संसार पत्रिका,
प्रकाशन वर्ष :- जून २०१४,
भाषा :- हिन्दी.
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Vedakaleen Parvapadhati.pdf0.65 KB
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ट्रेक्ट / लेख :- वेदार्थ और भाषा विज्ञान के शाश्वत नियम,
लेखक :- आचार्य उदयन मीमांसक जी,
पृष्ठ :- ७ (7),
प्रकाशन :- वेदवाणी पत्रिका, रामलाल कपूर ट्रस्ट,
प्रकाशन वर्ष :- नवम्बर २०१६.
Vedartha & Niyam.pdf0.82 KB
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लघु पुस्तिका :- शंकराचार्य और मूर्तिपूजा,
लेखक :- आचार्य प्रेमभिक्षु जी,
पृष्ठ :- २४ (24),
प्रकाशन :- सत्य प्रकाशन मथुरा,
प्रकाशन वर्ष :- २००२ (2002),
भाषा :- हिन्दी.
शंकराचार्य_और_मूर्तिपूजा.pdf2.19 MB
लघु पुस्तिका :- छः वैदिक दर्शनों का मतैक्य है,
लेखक :- आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री जी,
पृष्ठ :- ३० (30),
प्रकाशन :- सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा,दिल्ली,
प्रकाशन वर्ष :- १९९६ (1996),
भाषा :- हिन्दी.
Cheh_Vaidik_Darshanom_Ka_Mataikya_Hai_of_Aachary_Vaiddhynath_Shastri.pdf10.84 MB
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जीवनी की बात से ही याद आया,
कुछ मूढ़ और मुर्ख लोग ये कहते हैं के महर्षि दयानन्द जी महाराज और रामकृष्ण परमहंस दोनों मिले थे एक दूसरे को.
ऐसा कुछ फेकू पुस्तकों में भी लिखा हुआ है.
यदि यह बात सत्य होती तो रामकृष्ण परमहंस अवश्य ही महर्षि दयानन्द जी महाराज के शिष्य बन जाते. क्योंकि वेद के आगे सबको झुकना ही पड़ेगा.
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यदि यह बात जिनके समझ में नहीं आई तो दो बातें हो सकती है.
१. आपने महर्षि की कोई जीवनी नहीं पढ़ी.
२. आपने महर्षि की कोई जीवनी नहीं पढ़ी.
अब उक्त पोस्ट को न पढ़कर कुछ अंध विरोधी लोग भविष्य में आपको कुछ भी प्रकार से बहला सकते हैं.
यह न हो उसके लिए आपको क्या करना चाहिए?
सबसे पहले तो जितनी जीवनियां आप खरीद कर पढ़ेंगे उतना आपका ही ज्ञान बढ़ेगा महर्षि के विषय में. और बाकी यदि आप नहीं पढ़ते तो आपका क्या नुकसान है? आपको कोई भी बहका सकता है.
अब उक्त बात लेखराम जी द्वारा संग्रहित और लक्ष्मण जी लिखित जीवनी में नहीं है.
पर आपको क्या? आप तो पीडीएफ से पढ़ते हैं.
इसमें आपका क्या दोष? आपको जब पुस्तक लेनी ही नहीं है तो कोई क्या कर सकता हैं? आपको थाली में सब सजावट करके दे क्या?
और हां बहुत सी बातें तो दयानन्द प्रकाश में भी गलत है. तो क्या हम उन गलत बातों का भी समर्थन करते हैं? नहीं, कभी नहीं.
इसी लिए आज ही जीवनियां खरीदें और पढ़ें और हां अनुसंधान अवश्य करें. पर सकारात्मक दिशा में. बाकी नकारात्मक तो निर्णय बुढा भी करता है.
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आर्यों के विमर्श के लिए...
*• स्वामी दयानन्द जी के जीवनचरित्रों में एक विसंगति या दोष •*
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मुझे स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के प्रमुख जीवनचरित्रों में एक विसंगति या दोष दृष्टिगोचर हुआ है।
बाबू देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, दीवान बहादुर हरविलास शारदा तथा डॉ. भवानीलाल भारतीय – ये तीनों के द्वारा रचित स्वामी जी के जीवनचरित्रों में यह दोष है। यह दोष कैसे हुआ, यह अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है।
स्वामी जी के मुंबई प्रवास के वर्णन में देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय संगृहीत महर्षि दयानन्द के जीवनचरित के १६वें अध्याय में “बृहत / महान प्रलोभन” उपशीर्षक में मुंबई के एक प्रसिद्ध सेठ की स्वामी जी से हुई बातचीत का उल्लेख किया गया है और इस सेठ का नाम *“गोकुलदास तेजपाल”* (गुजराती में “गोकळदास तेजपाळ”) लिखा गया है। यह सेठ महर्षि जी को प्रलोभन देते हुए कहते हैं कि – “यदि आप मूर्त्तिपूजा का खंडन छोड़ दें तो मैं सब भाटियों को आपका अनुयायी बनवा दूं।” स्वामी जी ने तुरंत उत्तर दे दिया कि – “ऐसा कभी नहीं हो सकता।”
इसी प्रसंग का उल्लेख हरविलास शारदा तथा डॉ. भवानीलाल भारतीय रचित स्वामी जी के जीवनचरित्रों में भी मुम्बई प्रवास विषयक प्रकरण में यथास्थान पाया जाता है और दोनों में इस सेठ का नाम “गोकुलदास तेजपाल” ही लिखा गया है।
मैंने जब उक्त प्रसंग पर विचार किया और “गोकुलदास तेजपाल” के संबंध में जानना चाहा तो पता चला कि उनका देहांत १८६७ ई० में हो चुका था, और स्वामी जी का मुम्बई में प्रथम बार आगमन १८७४ ई० में हुआ था। “गोकुलदास तेजपाल” का देहांत १८६७ ई० में हो चुका था, यह सुनिश्चित तथ्य है। वल्लभजी सुंदरजी पुंजाभाई के गुजराती ग्रन्थ “मुंबई-ना महाशयो” (अर्थात् मुंबई के महाशय) के प्रथम भाग (प्रथम संस्करण प्रकाशन वर्ष १९२० ई०) के पृष्ठ १०९-१११ पर “गोकुलदास तेजपाल” का जीवन परिचय तथा चित्र दिया गया है, जिसमें उनका जन्म ११ जून १८२२ तथा देहांत १९ नवंबर, १८६७ लिखा गया है। अन्यत्र भी इस सेठ का देहांत १८६७ ई० में ही बताया गया है।
इसलिए जब महर्षि प्रथम बार मुंबई आए तब “गोकुलदास तेजपाल” जीवित नहीं थे, उनका निधन सात वर्ष पूर्व हो चुका था। इसलिए उनका महर्षि जी से मुंबई में मिलना और वार्तालाप करना असम्भव है।
अतः सम्बंधित सेठ के सत्य नाम का अन्वेषण होना चाहिए।
-- भावेश मेरजा
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कुछ मूढ़ लोग महर्षि का विरोध कर रहे थे प्रसूति काल के ऊपर.
ऋग्वेद दशम मण्डल के 184 सूक्त के तीसरे मन्त्र में दशमे मासि सूतवे शब्द उनको इस जन्म में तो दिखा ही नहीं होगा न दिखेगा.
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