श्रीवैदिक स्मार्त्त
वेद सर्वोपरि, सनातन, शाश्वत एवं अपौरुषय हैं। मनु आदि स्मृतियाँ ही धर्मशास्त्र हैं। महाभारत-रामायणादि इतिहास तथा पुराण वेदों के उपबृंहण हैं, तथा लोक कल्याण हेतु व्यासादि महर्षियों द्वारा प्रकट किए गए हैं।
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कह सकी थी। परन्तु अगर राम एवं रावण का प्रसंग आता तो उसे भी सोचना पड़ता कि यदि रामराजा होगे तो गोहत्या बन्द होगी । धर्म एवं शास्त्र का घांत रुकेगा। संस्कृति-नीति-भक्ति की सुरक्ष। होगी। टीक इसके विपरीत यदि रावण राजा होगा तो गोवध, शास्त्रवध और धर्मबध होगा । विविध धार्मिक, अध्यात्मिक उपासनाएँ एवं साधनाएँ संकट में पड़ जायेंगी। वस्तुतः शुद्ध धार्मिक व्यक्तिको भगवान् श्रीकृष्ण के शब्दों में स्पष्ट कहेंगा - यस्तान् दृष्टि स मां दुवेष्टि यस्ताननु समामनु ।" जो धर्म पक्ष का शत्रु है वह हमारा शत्रु है जो धर्म पत्त का अनुयायी है वह हमारा अनुयायी है। आज कल की नकली उदारताकी नगण्यता, श्री कृष्ण की उक्ति से. व्यक्त हो जाती है। द्विवषदन्नं न भोक्तयं द्विषन्तं नैव भोजयेत । पाण्डवान् द्विष से राजन् मम प्राणा हि पाण्डवाः यस्तान् दुवेष्टि समांद्वेष्टि यस्ताननु
समामनु ॥ दुयोंधन द्वारा निसन्त्रित किये जाने पर भगवान् ने कहा था राजन् ! शत्रु का अन्न नं खाना चाहिए, न शत्रु को खिलाना ही चाहिए। आप पाण्डवों से द्वश करते हैं' किन्तु पाण्डवं मेरे प्राण तुल्य हैं। जो पाण्डवोंका दुश्मन है, वह मेरा दुश्मन है, जो प डवों का मित्र है, मेरा मित्र है।
धर्म और राजनीति
आजकल कहा जाता है कि साधुओं को केवल पूजा और पाठ, कथा-वार्ता करनी चाहिए राजनीति के में नहीं पड़ना चाहिए। कितने ही कांग्रेसी और भाजपाई। भी ज्ञान और भक्ति की चर्चा करने साधुओं के पास पहुंचते हैं। वैकुंठ भी जाना चाहते हैं, साथ ही यह भी चाहते हैं कि उनके मनमानी आचरण करने एवं परघन हरण में कोई बाधा न होनी चाहिए। यद्यपि समाजवाद और आध्यात्म- बाद में प्रत्यक्ष विरोध है। ईश्वर, आत्मा और धर्म मानने पर तो कोई न कोई शास्त्र एवं नियम मानना ही पड़ता है। धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक • नियम भी मानने पड़ते हैं और फिर मनमाने आचरण एवं परधन परभ्रूमि हरण भी नहीं चल सकता। इसीलिए धर्म एवं शास्त्र की हत्या का प्रयत्न करते हुए 'धर्म से और जप से वैकुंठ पाने की आशा रखनी मूर्खता है। कोई आम्र का फल चाहे आम्र की जड़ काटे यह मुर्खता है और गोदुग्ध चाहे गोवध का प्रयत्न • करे तो यह मूर्खता है। उसी तरह धर्म फल चाहे धर्म से बैर बाधे। धर्म का अना- दूर करे, धर्मबोधक शास्त्र को ठुकराये तो यह भी मूर्खता ही है। भगवान् का भजन करें कीर्तन करे भगवान् के शास्त्रों का विनाश आंखों देखे यह असङ्गत है। कोई अध्यात्मवादी बने, अध्यात्म विरोधी समाजवाद के शरणागत, होना चाहे, यह मूर्खता है। राजनीति कोई अजीब चीज नहीं है। जहाँ सरकारों द्वारा धर्म धनु एवं शास्त्रों का विनाश हो रहा हो, वहाँ धार्मिक राज्य बनाने के लिए प्रयत्न करना आवश्यक है। स्पष्ट है कि जब रावण राज्य में गौ ब्राह्मण का वध होता था शास्त्र एवं सभ्यता नष्ट होती थी, तो उसे मिटाने के लिए देवताओं ऋषियों एवं आस्तिकों ने बल लगायां । राम आये और रामराज्य बना, तभी शान्ति हुई। लौकिक पारलौकिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त हुआ। शास्त्र कहते हैं 'मज्जेत्त्रयी दण्डनीतौ इतायाम् राजनीति के नष्ट हो जाने पर वेद एवं - वेदोक्त धर्म संकट में पड़ जाता है। आन्वीक्षिकी (वेदान्त विद्या) त्रयी (वेदादि- प्रोक्त धर्म विद्या) बार्ता (कृषि गोरक्षा वाणिज्य विद्या) ये लौकिक पारलौकिक उन्नति. *का साधन होने से सती (समीचीना) विद्या हैं। परन्तु दण्डनीति के विप्लव या विभ्रम होने से उपर्युक्त तीनों ही विद्याएं असती (अकिंचित कर) हो जाती हैं।
आन्वीक्षि की त्रयी वार्ता सतीबिंद्याः प्रचक्षते । सत्योपिद्दि न सत्यस्ता दण्डनीतेस्तु विभ्रमे ॥
इस दृष्टि से माता-पिता-गुरुजनों को विमाश देखना हाथ पर हाथ धरे बैठ रहना, माला जपने और बैकुण्ठ प्राप्त करने की बात करनी मूर्खता है। इषी तरह राजनीतिक कांग्रेस आदि पार्टियों की सरकारों के द्वारा, धन धर्म का विनाश देखना शास्त्र एवं तयुक्त मर्यादयों का विध्वंस देखना और उन्हीं विध्वंसकों के टुकड़ों एवं प्रसाद की आशा रंखनी अतिं मूर्खता है। मन्दिरों की मर्यादाओं का विध्वंस देखते हुए भी विध्वंसकों का साथी बनना या चुप रहना वैसा ही पाप है, जैसे माँ बहन बेटियों की इज्जत लुटते हुए देखना और लूटने वालों का ही साथ देना या चुरचाप बैठे रहना ।
'यश्च स्थापयितु' शक्तोनैव कुर्याद्धि मोहितः । तस्य हन्ता न पापीयानिति वेदान्त निर्णयः ॥'
जो धर्म विरोधियों का प्रतिरोधन कर धर्म मर्यादा स्थापना करने में समर्थ होकर भी प्रयत्न नहीं करता या प्रयत्न करने बालों का साथ नहीं देता वह दराज्य.. भी पाप नहीं होता ।
है और उसके दण्डेयिता को कुछ किन्तु जो समर्थ न होने पर भी इन कार्यों के लिए प्रयत्नशील होता है अपना कर्तव्य पालन करता है, वह इन सब पापों से मुक्त होकर सम्यक् ज्ञान का भागी होता है।
यः स्थापयितुं मुद्युक्तः श्रद्धयैवात्तमोऽपि सन् । सर्व पापविनिर्मुक्तः सम्यक् ज्ञानमंवापनुयात् ॥
ऐसे धार्मिक भक्त या साधु जो धर्म का नास. लेकर, बैकुण्ठ पहुँचाने का नाम लेकर, धर्मविध्वंसक सरकार ने पिट्ठू होकर धर्म एवं शास्त्र के नाश में हेतु बन रहे हैं, वे वस्तुतः ईश्वर, धर्म एवं जनता के दुश्मन हैं। जनत को शीघ्रतिशीघ्र ऐसे लोगो से सावधान हो जाना चाहिए। ऐसे लोग स्वयं नरक के कीड़े हैं। फिर इसके द्वारा ईश्वर भक्ति एवं बैकुण्ठ या ब्रह्म प्राप्ति की आशा करनी अपनेः आपको धोखे में डालना है। जो रोटी के टुकड़े एवं कुछ चाँदी के टुकड़ों या प्रतिष्ठा के लिए धर्म एवं शास्त्र विरोधियों का प्रशांसक साथी एवं सहायक बन सकता है, उसके द्वारा ब्रह्म या बैकुण्ठ की आशा करनी खपुष्प पाने की आशा करनी है।
ऐसे ही लोग कभी कभी (कुछ साघु एवं कुछ धार्मिक या भक्त कहे जाने - वाले लोग) कहने लगते हैं, कि हम तो तटस्थ हैं। सभी राजनीतिक पार्टियों को समान दृष्टि से ही देखते हैं ऐसे लोग कभी 'रामाय स्वस्ति' कभी रावाणाय स्वस्ति' की बात करते हैं। कहना न होगा तटस्थता का दम्भ एवं मूर्खता अपनी कायरता छिपाने के लिए ही है। स्पष्ट है जहाँ राम का राज्य या रावण का राज्य बनाने का प्रसंग खड़ा होगा? वहां तटस्थता कैप्ते उचित कही जा सकती है, "कोउ नृप होइ इमहिं का हानी” ऐसा बोलने वाली मन्थरा भी राम और भरत के मुकाबले में यह
Repost from आदित्यवाहिनी राष्ट्रीयसमूह ☀️
Freemason agent
Swami Vivekananda as a freemason:
Details of Swami Vivekananda becoming a Freemason is mentioned in pages 117 and 118 of the book ‘The life of Swami Vivekananda – Volume I’ written by his eastern and western disciples and Hindi book Yug Nayak Vivekananda page no 80 Volume 1
On February 19, 1884, Narendranath Datta joined the Anchor and Hope Lodge (No. 234), which is now the Grand Lodge of India No.1.
W.C. Banerjee and Nimaichandra Basu, friends of Narendranath’s father Vishwanath Datta were active members of the Lodge.
After joining the Masonic Lodge, Narendranath Datta passed their test on April 5, 1884 and was raised to the degree of ‘Master Mason’ on May 20 of the same year.
When Swami Vivekananda was facing difficult times in Chicago in 1894, Mr. G.C. Connor, a Freemason gave letters of introduction to certain Freemasons in Chicago to treat the Swami cordially.
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