Brahmacharya111
इस चैनल का उद्देश्य है कि ब्रह्मचर्य की महान शिक्षा को हर बालक तक पहुंचाये, ऋषियों के अमृत ज्ञान को जन जन तक पहुंचाने के लिए एक गिलहरी की भांति यह मेरा छोटा सा प्रयास मात्र है। आप सब इस चैनल से जुड़े, और हमारे इस कार्य में सहयोग करें परिवर्तन अब दूर नही
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Repost from Brahmacharya111
भगवत गीता में अर्जुन को भी युद्ध क्षेत्र में डर लग रहा था कि दोनों और मेरे अपने ही प्रियजन खड़े हैं। इस डर के कारण कि दोनों ही और मेरे प्रियजन और सगे-संबंधि हैं इसलिए अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहता था।
तब श्री कृष्ण के समझाने पर अर्जुन ने सबसे पहले अपने डर को जीता और फिर बाद में युद्ध को जीतकर विजयी हुआ।
डर क्या है?
जब भी हम जो कार्य पहले से करते आ रहे हैं उससे अलग कुछ करते हैं तो हमें हमारी असफलता या हार का डर सताता है। बिना परिणाम के मन से ही कुछ बुरा ना हो जाए यह सोचना ही डर है। भगवत गीता के अनुसार डर अज्ञानता से पैदा होता है।
भगवत गीता के अनुसार डर का इलाज
भगवत गीता में बताया गया है, कि यदि हम डर से पीछा छुड़ाना चाहते हैं तो हमें अपने कंफर्ट जोन से बाहर आना होगा या हम ऐसा भी कह सकते हैं कि डर का इलाज खुद डर का सामना करने में ही छुपा है।
युद्ध से पहले अर्जुन भी डरा हुआ था परंतु जब वह युद्ध के लिए मैदान में उतरा और युद्ध शुरू किया तो उसका सारा डर अपने आप समाप्त हो गया। इसके अलावा डर पर विजय पाने के लिए हमें बिना फल या परिणाम की चिंता किए बगैर सिर्फ कर्म करना चाहिए। क्योंकि जब हम फल की चिंता नहीं करते हैं तो हम डर से स्वतंत्र रहते हैं।
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इस पोस्ट में comfort zone शब्द आया है इसका मतलब क्या है?
How to leave comfort zone: आपने कई लोगों के मुंह से कंफर्ट जोन की बातें सुनी होंगी और उन्हें इससे बाहर निकलने की जिद करते भी देखा होगा. उसके बाद मन में सवाल उठता है कि आखिर ये कंफर्ट जोन क्या है और अगर इससे बाहर निकलना हो तो कैसे निकले? यह एक मनोवैज्ञानिक चीज है, इसमें शख्स 'जैसा है ठीक है' की स्थिति में रहता है, कुछ भी नया करने का मन नहीं चाहता और एक्सपर्ट्स के मुताबिक यह बहुत नेगेटिव चीज है क्योंकि इससे जिंदगी में ठहराव आ जाता है.
क्या है कंफर्ट ज़ोन:
इस 'दायरे' में रहने वाले लोगों को आमतौर पर बाहरी गतिविधियों से कोई सरोकार नहीं होता और अगर वे उनकी तरफ जाना भी चाहें तो कुछ न कुछ उन्हें रोक लेता है. कुछ लोगों के लिए इससे बाहर निकलना आसान नहीं होता, एक अनजाना डर उन्हें उनका दामन थामे रखता है. ऐसे में सबसे अच्छा तरीका है कि कागज पर अपनी जिंदगी का एक घेरा बना लें. उसमें अपने आराम करने की वजहों को लिखिए और उसके बाहर वे बातें लिखिए जो आप कर सकते हैं लेकिन उन कामों करने में कठिनाइयों का सामना करने से डरते हैं. अगर कोई चीज़ आपको रोक रही है तो वह है डर.
कुछ नया सीखें:
इस पर काबू पाने के लिए पहला कदम कुछ नया सीखने की कोशिश करना है. ऐसी बहुत सी चीजें हैं वेबसाइट और यूट्यूब पर, जैसे कोई नई भाषा सीखना या बोलना सीखने वगैरह. इनका फायदा उठाने की कोशिश करनी चाहिए. इसी तरह कुछ व्यवहारिक नए काम भी सीखे जा सकते हैं और छुट्टियां के दौरान किसी अनजान जगह पर घूमने के लिए जा सकते हैं.
लोगों के सामने खुलकर बोलें:
इस स्थिती में रहने वाले शख्स के लोगों के सामने खुलकर बोलना काफी मुश्किल काम होता है. इसलिए ज्यादातर लोग इससे डरते हैं. अगर आपके साथ भी ऐसा है, तो इसे तोड़ने का तरीका है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों से बात की जाए. आपका आत्मविश्वास अपने आप बढ़ जाएगा. इसके अलावा जब आप कुछ नया करने की सोचते हैं तो आपके अंदर से कुछ बहाने आपको पकड़ लगते हैं, जैसे- 'अगर ऐसा ना हुआ तो क्या होगा, अगर वैसा ना हुआ तो क्या होगा' वगैरह. तो इस तरह के बहानों को तुरंत इग्नोर करना शुरू कर दें
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पंडित रामप्रसाद बिस्मिल जी के जीवन से हम क्या प्रेरणा ले सकते हैं
1- हमेशा हर परिस्थिति में धर्म अनुकूल कार्य करना, हमेशा सत्य बोलना
2- नियमानुसार ब्रह्ममुहूर्त में उठना
3- नियम से यज्ञ आदि कर्म करना
4- योग, प्राणायाम और व्यायाम अनुशासित होकर करना
5- गलत आदतों को जितना जल्दी हो सके उन्हें छोड़ देना
6- घर की ज़िम्मेदारियां को देखकर आचरण करना ,
7- कभी ईश्वर से किसी चीज की इच्छा प्रकट ना करना, मतलब जो है उसी में सन्तुष्ट रहना
8- पुस्तक अध्ययन करने की नियमित आचरण
9- प्रतिदिन सन्ध्या उपासना करना
10- गुरु की निष्काम भाव से सेवा करना
11- भोजन में संयम करना
12- सभी कार्य ईश्वर को समर्पित होकर करना
13- किसी कार्य का श्रय नहीं लेना
14- मातृभाव की दृष्टि रखना
15- द्वेष, अंहकार, चुगली, गपशप करना, क्रोध, झूठ , निंदा से सर्वथा दूर रहना
16- ईश्वर की स्तुति करना,
17- जीवन का उद्देश्य का पता चलना
18- वेदों का स्वाध्याय करना
19- नियमित रूप से अनुशासित होकर वैदिक दिनचर्या का पालन करना
20- राष्ट्र हित के लिए प्रतिज्ञा करना
21- युवाओं को सही दिशा निर्देश देना
22- और वह एक अच्छे लेखक भी थे
23- और प्रवक्ता भी थे।
24- वह सदैव निर्भय रहते थे, इसका प्रमाण भी उनकी आत्मकथा में हमें देखने को मिलता है।
25- वह आर्य समाज के समर्थक थे।
26- और सबसे बड़ी बात वह एक अच्छे सदाचारी व्यक्ति थे।
27- ब्रह्मचर्य पालन के कटृर समर्थक थे
28- उनके जीवन में बदलाव आने के निम्न कारण है? उनके गुरु, सत्यार्थ प्रकाश, और दादी जी
भारतवर्ष में जन्म लेने वाला हर युवा परम शाक्तिशाली है। हर युवा एक अपने आप में दिव्य शाक्ति है, हम किस तरहां से समाज व राष्ट्र हित के कार्य कर सकते हैं उस परिस्थिति पर विचार करना चाहिए। यह जीवन बहुत मूल्यवान है। हीरे से भी ज्यादा कीमती है। इस जीवन का उद्देश्यों को पहचानों भाईयों
ब्रह्मचर्य ही जीवन का सारतत्व है
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१) मैं बलवान हूं और मेरे पूरे शरीर में बल का आभास हो रहा है।
२) मैं अपने अंदर के पुरूषार्थ से ब्रह्मचर्य पथ पर सफलता पूर्वक चलने के लिए पूरी तरहां से तैयार हैं।
३) मैं अत्यंत खुश हूं, और प्राकृतिक द्वारा मुझे अद्भुत खुशी मिल रही है।
4) मैं चरित्रवान हूं और हर स्त्री का सम्मान मैं करने लगा हूं
5) मैं इस देह की असलियत को पहचान चुका हूं मैं शरीर नहीं, अजर अमर आनंदित दिव्य आत्मा हूं।
6) जीवन का उद्देश्य मुझे अब पता चला रहा है
मैं इंद्रियों को जीतने की दिशा में आगे बढ़ रहा हूं
मैं निर्भय हूं, और ईश्वर का अनुभव कर पा रहा हूं
मैं ऊर्जावान हूं
मैं शाक्तिमान हूं
यह पहले लिखे
फिर मन में सोचे कि जो आपने लिखा है वह सब सच हो रहा है। फिर पूरे विश्वास के साथ बोले।
चौथा ट्रास्क है। कि अपनी एक दिनचर्या बना लीजिए, बिना दिनचर्या के जीवन , एक ऐसी यात्रा के समान है जिसका हमको पता ही नहीं जाना कहां है।
पांचवां ट्रास्क है कि उपनिषद गंगा और रामायण सीरियल जरूर देखें। इससे आपका मन परिवर्तित होगा।
छठा ट्रास्क है कि आपको प्रतिदिन ध्यान का अभ्यास करना है। शुरुआत 10 मिनट से करें और प्रतिदिन 2 मिनट बढ़ाते रहे।
सातवां ट्रास्क में आपको प्राणायाम और योगा करने का अभ्यास करना है। व्यायाम का ट्रास्क अगले सप्ताह से शुरू करेंगे।
आठवां ट्रास्क है कि आपको प्रतिदिन एक संकल्प लेना है।
जैसे आज यह कार्य नहीं करना है यहां आज यह कार्य करना है। अगर समझ नहीं आ रहा है तो कमेंट करें आपको बता दिया जायेगा।
नौवां ट्रास्क है कि अपना मनपसंद भंजन या संगीत 3 टाइम जरूर सुने, सुबह, दोपहर , और रात को सोने से पहले।
इस सप्ताह नौ ट्रास्क आपको दे रहे हैं। और ट्रास्क पूरे करकर कमेंट में जरूर बताया करें।
आप सब मिलकर बोले परिवर्तन अब दूर नहीं
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भीष्म प्रतिज्ञा ब्रह्मचर्य कोर्स (सप्ताह -2)
जीवन में उतार चढाव
आज भीष्म प्रतिज्ञा कोर्स का दूसरा चरण है। आज बहुत खुशी हो रही है। कि सभी भाईयों ने लगभग एक पड़ाव पूरा कर लिया है। आज आप सब ने यह स्पष्ट कर दिया । कि तुम उड़ने के लिए बने हो, जमीन पर रेंगने के लिए नहीं। जिसने भी पहला पड़ाव पूरा कर लिया हो तो कमेंट में लिखे मैंने अपने पुरूषार्थ से अपना भाग्य लिखा है।
आखिर कब तक मुझे घुट घुट कर जीना होगा?
आखिर कब तक हालातों की निर्मम भट्टी में
तिल तिलकर मुझे मरना होगा...?
दर्द इतना है कि बता नही सकता
ज़िंदगी की डोर भी मैं अब छुड़ा नही सकता
लगता है कि इस शरीर मे रहना ही गुलामी है
पर फितरत मेरी तो जैसे सुनामी है...
शब्द जोश से भरे बड़े अच्छे से लगते है
पर मुश्किलों के आगे कच्चे से लगते है
खैर कमज़ोर मन की यह निशानी है
जीतता तो वही है, जिसने हार नही मानी है...
कैसे इन सीमाओं में मैं अब बंध सकता हूँ
क्या ठोकर खाकर मैं कभी रुक सकता हूँ
पीड़ा असहनीय है मगर तब भी अंदर तो गूंज सुनाई देती है
विश्वजीत हो तुम यही धुन गुंजाई पड़ती है...
सुनना होगा तुम्हें भी अपने भीतर की आवाज़
यही तुम्हे राह दिखाएगी अन्यथा जीवन बड़ा जटिल है प्यारे हर एक सांस तुझे तड़पायेगी...
डराना काम नही मेरा मैं तो हर डर को मिटाता हूँ
पी रहा हूँ जिन आंसुओ को अपने युवाओं की सलामती हेतु बस वही तो हाल सुनाता हूँ...
प्रायश्चित का हर एक आंसू मेरा उन बाधाओं पर भारी है
ज़ख्मी हूँ तो क्या हुआ विश्वास से बढ़ने की दहाड़ मैंने मारी है...
आखिर कब तक यह एक नही
सैंकड़ो नादान युवाओं की कहानी रहेंगी
सम्भलना तो चाहते है पर
कब तक उनकी भटकती जवानी रहेगी...?
प्रश्न जब उठा है
तो उत्तर भी प्रदान होगा
समस्या है तो क्या हुआ
ज़रूर इसका भी समाधान होगा...👌
"कथनी औऱ करनी" को बस एक करना है
व्यस्त दिनचर्या में कार्य अनेक करना है
संयम का शासन जब होगा खुद पर
तब न कभी तुझे फिर शोक करना है...
बस इतना ही तुझे करना है
ठोकर से अब तू सीख ले
खुद की गलती पर भी चीख ले
पीड़ा को अपनी कभी भूलना नही
सुख में इतराकर तू डूबना नही...
हँसना, पर तेरी आंखों की नमी मे भी दम हो
रोना खूब पर ईश्वर पर भरोसा कभी कम न हो...
कर्म तुझे दिये है हालात बदलने को
सन्कल्प भी काबिल है तुझमें जज़्बात बदलने को
असमंजस में हो जब मासूम प्रार्थना कर लेना
यह भी कर्म ही है वक़्त बदलने का
इसकी ताकत का एहसास तुम भी कर लेना...
बस इतना ही तुझे करना है
शोक नही मन में
किसी बात का भरना है
होता वही है, जो होना है
फिर काहे का रोना है...?
प्यारे फिर काहे का रोना है...?
प्यारे युवा साथियों जीवन में कुछ घटनाएं ऐसी होती है जिन पर मनुष्य का कोई नियंत्रण नही होता है । इन्हें हम उतार चढ़ाव के रूप में समझ सकते है । लेकिन साथियों कई बार ऐसी स्थितियां होती है, जिन्हें हम खुद अपने कठोर अनुशासन द्वारा नियंत्रित कर सकते है, उन्हें उतार चढ़ाव का नाम देना उचित नही है।
उदाहरण के लिये:- यदि कल आपका पेपर है, औऱ आप मजे से आज सो रहे है, जिसका परिणाम यह होता है कि आप exam में असफल हो गए।
और जब आपसे कोई यह पूछे कि इस असफलता की वजह क्या है? तब आप इसे जीवन का उतार चढ़ाव कहकर सही नही ठहरा सकते। क्योंकि यह आप भली भांति जानते है, कि परिस्थितियां आपके नियंत्रण में ही थी। लेकिन आपने समय का दुरुपयोग कर अवसर खो दिया। अतः हमें यह जिम्मेदारी लेकर खुद को सुधारना होगा।
हम यहाँ यह नही कह सकते कि, एक दिन हमारा भी वक़्त आएगा। क्योंकि यदि हम ख़ुद के अच्छे वक़्त के लिये , किये जाने वाले मजबूत प्रयासों में अच्छा वक्त नही देंगे, तो कभी हमारा सही वक्त नही आ सकता...
भीष्म प्रतिज्ञा ब्रह्मचर्य कोर्स में इस सप्ताह क्या ट्रास्क होने वाले हैं?
सबसे पहला ट्रास्क यही है कि रोज रात को सोने से पहले अगले दिन आपको क्या क्या करना है, और पहले कौन से कार्य करने हैं, बाद में कौन से कार्य करने हैं। सब व्यवस्थित क्रम में डायरी में लिखना है।
दूसरा ट्रास्क यह है कि दिन की शुरुआत अच्छी करने से पहले तुम्हें पिछले दिन में संयम और अनुशासन द्वारा रात को जल्दी सोने की आदत डालनी पड़ेगी, तभी आप ब्रह्ममुहूर्त में उठ पाओगे। और दिन की शुरुआत सात्विक और सकारात्मक होगी। पूरा दिन हमारा कैसा जायेगा। वह हमारे उठने के ऊपर निर्भर करता है। तो इसलिए सुबह जल्दी उठें।
तीसरा ट्रास्क मैं कुछ Affirmation शब्द आपको दिए जायेंगे, Affirmation कैसे बोलना है। पिछली वीडियो में आपको बता दिया है। तो जो लोग नये है। वह पिछली वीडियो देखें।
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१७. सब को तुल्य वस्त्र, खान-पान और तुल्य आसन दिया जावे। चाहे वे राजकुमार वा राजकुमारी हो, चाहे दरिद्र की सन्तान हों। सबको तपस्वी होना चाहिये। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
१८. उनके माता-पिता अपनी सन्तानों से वा सन्तान माता-पिता से न मिल सकें और न किसी प्रकार का पत्र-व्यवहार एक-दूसरे से कर सकें। जिससे संसारिक चिन्ता से रहित होकर केवल विद्या पढ़ने की चिन्ता रखें। जब भ्रमण की जावे, तब उनके साथ अध्यापक रहें। जिससे किसी प्रकार की कुचेष्टा न कर सकें और न आलस्य प्रमाद करें। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
१९. जो वहां अध्यापिका और अध्यापक पुरुष वा भृत्य अनुचर हों, वे कन्याओं की पाठशाला में सब स्त्री और पुरुषों की पाठशाला में पुरुष रहें। स्त्रियों की पाठशाला में पांच वर्ष का लड़का और पुरुषों की पाठशाला में पांच वर्ष की लड़की भी न जाने पावे। अर्थात् जब तक वे ब्रह्मचारी वा ब्रह्मचारिणी रहें, तब तक स्त्री वा पुरुष का दर्शन-स्पर्शन, एकान्तसेवन, भाषण, विषयकथा, परस्परक्रीड़ा, विषय का ध्यान और सङ्ग इन आठ प्रकार के मैथुनों से अलग रहें और अध्यापक लोग उनको इन बातों से बचावें। जिससे उत्तम विद्या, शिक्षाशील, स्वभाव, शरीर और आत्मा से बलयुक्त होके आनन्द को नित्य बढ़ा सकें। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
२०. यथावत् ब्रह्मचर्य में आचार्यानुकूल वर्तकर धर्म से चारों, तीन वा दो, अथवा एक वेद को साङ्गोपाङ्ग पढ़ के जिसका ब्रह्मचर्य खण्डित न हुआ हो वह पुरुष वा स्त्री गृहाश्रम में प्रवेश करे। (सत्यार्थप्रकाश, ४
समुल्लास)
२१. स्त्रियां आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण करती थीं, और साधारण स्त्रियों के भी उपनयन और गुरु गेह में वासादि संस्कार होते थे। (उपदेश मञ्जरी)
२२. ब्रह्मचर्य पूर्ण करके गृहस्थ और गृहस्थ होके वानप्रस्थ तथा वानप्रस्थ होके संन्यासी होवे। (संस्कार विधि, संन्यास संस्कार)
२३. परन्तु जो ब्रह्मचर्य से संन्यासी होकर जगत् को सत्यशिक्षा कर जितनी उन्नति कर सकता है, उतनी गृहस्थ वा वानप्रस्थ आश्रम करके संन्यास आश्रमी नहीं कर सकता। (सत्यार्थप्रकाश, ५ समुल्लास)
२४. जिस पुरुष ने विषय के दोष और वीर्य संरक्षण के गुण जाने हैं, वह विषयासक्त कभी नहीं होता, और उनका वीर्य विचार अग्नि का ईंधनवत् है अर्थात् उसी में व्यय हो जाता है। जैसे वैद्य और औषधियों की आवश्यकता रोगी के लिये होती है, वैसे निरोगी के लिये नहीं, इस प्रकार जिस पुरुष वा स्त्री को विद्या धर्म वृद्धि और सब संसार का उपकार करना ही प्रयोजन हो, वह विवाह न करे। (सत्यार्थप्रकाश, ५ समुल्लास)
२५. जो मनुष्य इस ब्रह्मचर्य को प्राप्त होकर लोप नहीं करते, वे सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होते हैं। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
२६. सब आश्रमों के मूल, सब उत्तम कर्मों में उत्तम कर्म और सब के मुख्य कारण ब्रह्मचर्य को खण्डित करके महादुःख सागर में कभी नहीं डुबना। (संस्कार विधि, वेदारम्भ संस्कार)
२७. यदि कोई इस सर्वोत्तम धर्म से गिराना चाहे, उसको ब्रह्मचारी उत्तर देवे कि अरे छोकरों के छोकरे! मुझ से दूर रहो। तुम्हारे दुर्गन्ध रूप भ्रष्ट वचनों से मैं दूर रहता हूं। मैं इस उत्तम ब्रह्मचर्य का लोप कभी न करूंगा। (संस्कार विधि, वेदारम्भ संस्कार)
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Blog #109
महर्षि दयानन्द जी महाराज ने अपने ग्रन्थों एवं प्रवचनों में ब्रह्मचर्य को जीवन का मूल आधार बताया है। यदि हम चाहते हैं कि हमारा देश पुनः अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त करे तो इसके लिए सब आर्यों को ब्रह्मचर्य के महत्व को भली भांति जानना होगा।
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदसंज्ञाविचार में कहा है। मनुष्य ब्रह्मचर्यादि उत्तम नियमों से त्रिगुण चतुर्गुण आयु कर सकता है, अर्थात् चार सौ वर्ष तक भी सुख से जी सकता है।)
२. जिसके शरीर में वीर्य नहीं होता, वह नपुंसक, महाकुलक्षणी और जिसको प्रमेह रोग होता है, वह दुर्बल, निस्तेज-निर्बुद्धि और उत्साह-साहस-धैर्य-बल, पराक्रम आदि गुणों से रहित होकर नष्ट हो जाता है। (सत्यार्थप्रकाश, २ समुल्लास)
३. आयु वीर्यादि धातुओं की शुद्धि और रक्षा करना तथा युक्तिपूर्वक ही भोजन-वस्त्र आदि का जो धारण करना है, इन अच्छे नियमों से आयु को सदा बढ़ाओ। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदोक्तधर्मविषय)
४. देखो, जिसके शरीर में सुरक्षित वीर्य रहता है, उसको आरोग्य, बुद्धि, बल और पराक्रम बढ़ कर बहुत सुख की प्राप्ति होती है। इसके रक्षण की यही रीति है कि विषयों की कथा, विषयी लोगों का सङ्ग, विषयों का ध्यान, स्त्री दर्शन, एकान्त सेवन, सम्भाषण और स्पर्श आदि कर्म से ब्रह्मचारी लोग सदा पृथक् रहकर उत्तम शिक्षा और पूर्ण विद्या को प्राप्त होवें। (सत्यार्थप्रकाश, २ समुल्लास)
५. जो तुम लोग सुशिक्षा और विद्या के ग्रहण और वीर्य की रक्षा करने में इस समय चूकोगे तो पुनः इस जन्म में तुमको यह अमूल्य समय प्राप्त नहीं हो सकेगा। जब तक हम लोग गृह कार्यों को करने वाले जीते हैं, तभी तक तुमको विद्या ग्रहण और शरीर का बल बढ़ाना चाहिये। (सत्यार्थप्रकाश, २ समुल्लास)
६. जो सदा सत्याचार में प्रवृत्त, जितेन्द्रिय और जिनका वीर्य अधःस्खलित कभी न हो उन्हीं का ब्रह्मचर्य सच्चा होता है। (सत्यार्थप्रकाश, ४ समुल्लास)
७. जिस देश में ब्रह्मचर्य विद्याभ्यास अधिक होता है, वही देश सुखी और जिस देश में ब्रह्मचर्य, विद्याग्रहणरहित बाल्यावस्था वाले अयोग्यों का विवाह होता है, वह देश दुःख में डूब जाता है। क्योंकि ब्रह्मचर्य विद्या के ग्रहणपूर्वक विवाह के सुधार ही से सब बातों का सुधार और बिगड़ने से बिगाड़ हो जाता है। (सत्यार्थप्रकाश, ४ समुल्लास)
८. जिस देश में यथायोग्य ब्रह्मचर्य विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार होता है, वही देश सौभाग्यवान् होता है। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
९. ब्रह्मचर्य जो कि सब आश्रमों का मूल है। उसके ठीक-ठीक सुधरने से सब आश्रम सुगम होते हैं और बिगड़ने से बिगड़ जाते हैं। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वर्णाश्रमविषय)
१०. सर्वत्र एकाकी सोवे। वीर्य स्खलित कभी न करें। जो कामना से वीर्य स्खलित कर दे तो जानो कि अपने ब्रह्मचर्य व्रत का नाश कर दिया। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
११. ब्रह्मचर्य सेवन से यह बात होती है कि जब मनुष्य बाल्यावस्था में विवाह न करे, उपस्थेन्द्रिय का संयम रखे, वेदादिशास्त्रों को पढ़ते-पढ़ाते रहें। विवाह के पीछे भी ऋतुगामी बने रहें। तब दो प्रकार का वीर्य अर्थात् बल बढ़ता है, एक शरीर का और दूसरा बुद्धि का। उसके बढ़ने से मनुष्य अत्यन्त आनन्द में रहता है। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, उपासनाविषय)
१२. अड़तालीस वर्ष के आगे पुरुष और चौबीस वर्ष के आगे स्त्री को ब्रह्मचर्य न रखना चाहिये। परन्तु यह नियम विवाह करने वाले पुरुष और स्त्रियों के लिए है। और जो विवाह करना ही न चाहें वे मरणपर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकें तो भले ही रहें। परन्तु यह काम पूर्ण विद्या वाले, जितेन्द्रिय और निर्दोष योगी स्त्री और पुरुष का है। यह बड़ा कठिन कार्य है कि जो काम के वेग को थाम के इन्द्रियों को अपने वश में रख सके। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
१३. ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी मद्य, मांस, गन्ध, माला, रस, स्त्री और पुरुष का संग, सब खटाई, प्राणियों की हिंसा, अङ्गों का मर्दन, बिना निमित्त उपस्थेन्द्रिय का स्पर्श, आंखों में अञ्जन, जूतों और छत्रधारण, काम-क्रोध, लोभ-मोह-भय-शोक-ईर्ष्याद्वेष, नाच-गान और बाजा बजाना, द्यूत, जिस किसी की कथा, निन्दा, मिथ्याभाषण, स्त्रियों का दर्शन, आश्रय, दूसरों की हानि आदि कुकर्मों को छोड़ देवें। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
१४. पाठशाला से एक योजन अर्थात् चार कोश दूर ग्राम वा नगर रहे। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
१५. जहां विषयों वा अधर्म की चर्चा भी होती हो, वहां ब्रह्मचारी कभी खड़े भी न रहें। भोजन छादन ऐसी रीति से करें कि जिससे कभी रोग-वीर्य हानि, वा प्रमाद न बढ़े। जो बुद्धि का नाश करने हारे नशे के पदार्थ हों उनको ग्रहण कभी न करें। (व्यवहारभानु)
१६. जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मना, जितेन्द्रियता आदि की बढ़ती होवे और अविद्या आदि दोष छूटें उसको शिक्षा कहते हैं। (स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश)
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Photo unavailableShow in Telegram
चलो एक शहीद की पत्नि को सम्मान देते हैं..
उन्हें विधवा के बदले वीर वधु कह कर सम्मान देते हैं 🙏
सियाचीन ग्लेशियर के एक बंकर में 19 जुलाई 2023 को अचानक आग लग गई।
कैप्टन डॉ अंशुमान सिंह जवानों को बचाने जलते बंकर में घुस गए और कुछ जवानों को सुरक्षित बाहर निकाला। लेकिन खुद वहीं फंस गए।
मरणोपरांत आज उनकी पत्नी स्मृति अंशुमन को कीर्ति चक्र दिया गया।
इनकी शादी को पाँच महीने ही हुए थे 🥺🥇
अंशुमान सिंह पूर्वांचल के देवरिया जिले के रहनेवाले थे...👏
वीर डॉ शहीद अंशुमन को हमारा नमन 🙏
जय हिन्द 🙏🥺
🙏 49❤ 7👏 5👍 3🔥 3
Ek problem aa rhi hai jisko pta ho please bta sakte ho
Headphone ka icon nhi hat rha hai , lekin headphone nhi lagaya fir bhi kya Karo please solution btyo agar kisi ko pta ho to
Blog #108
महान् गुण : अनुशासन
अनुशासन दो प्रकार का होता है बाहरी - और भीतरी। बाहरी अनुशासन दूसरों के द्वारा डंडे के जोर से लाया जाता है। जैसे सर्कस का रिंग मास्टर चाबुक के जोर से शेर को काबू में रखता है, जैसे हाथी का महावत उसे लोहे के तेज अंकुश की मार से वश में करता है। जैसे चरवाहा डंडे के बल पर गाय-भैंस पर अपना नियंत्रण रखता है। जैसे जेल का अधिकारी बंदूक दिखाकर कैदियों को नियम पालन के लिए विवश करता है। जैसे पुलिस बेकाबू भीड़पर लाठीचार्ज करके उस पर काबू पाती है।
बाहरी अनुशासन का आधार भय और दण्ड होता है। जब तक डंडा सिर पर रहता है, तब तक क्या पशु-पक्षी और क्या आदमी, भय से दुबके रहते हैं और नियम का पालन करते हैं। किन्तु ज्यों ही डंडे का भय टला, त्यों ही
वे फिर नियम तोड़कर बेकाबू हो जाते हैं।
इसके विपरीत अनुशासन का एक दूसरा प्रकार है आत्मानुशासन। इसे हम भीतरी अनुशासन कह सकते हैं, क्योंकि इस अनुशासन की प्रेरणा देने वाला बाहर से कोई नहीं आता बल्कि मनुष्य के भीतरी मन से ही अनुशासन की प्रेरणा मिलती है। ऐसा तभी होता है जब हमारा मन इतना सधा हुआ हो कि वह गलत काम करने से एकदम इन्कार कर दे और सदा नियम पालन की ही प्रेरणा दे। या यों समझों कि आत्मानुशासन का अर्थ है, अपने पर अपने-आप शासन करना। अपने लिए अपने-आप नियम बनाना। -
विद्यार्थियो ! तुम्हीं बताओ कि तुम्हें कौन-सा अनुशासन पसंद है- बाहरी अनुशासन या आत्मानुशासन ? क्या तुम चाहते हो कि बाहर से आकर कोई तुम्हें हुक्म दे-'पंक्ति से चलो', 'सड़क पर बाईं ओर चलो', 'फूल मत तोड़ो' आदि ? यह तो वैसा ही होगा जैसे दूसरे लोग हम पर शासन करें। क्या हम यह सहन कर सकते कि हमारे मन या शरीर पर कोई दूसरा व्यक्ति शासन करे। कोई दूसरा 'हुक्म' दे तो बैठें। कोई दूसरा 'हुक्म' दे तो पढ़ें। कोई दूसरा हुक्म दे तो खेलें। "क्या बात-बात पर दूसरों की गुलामी और उनका शासन तुम सहन करोगे ?"
यदि नहीं, तो तुम्हें अपना स्वामी स्वयं बनना होगा। अपने लिए स्वयं नियम बनाने होंगे और उन पर स्वयं ही कठोरता से चलना होगा। अपने मन, शरीर और इन्द्रियों पर काबू पाकर उन नियमों का पालन करना होगा। इसी का नाम आत्मानुशासन है। निःसंदेह डंडे के अनुशासन से आत्मानुशासन श्रेष्ठतर है।
आत्मानुशासन और संयम का अटूट संबंध है। खान- पान, रहन-सहन, विचार-व्यवहार और बोलचाल आदि क्रियाओं पर संयम करके मनुष्य सुखी बन सकता है। इन सब कामों में नियमों का पालन ही संयम है। नियम-पालन के लिए इन्द्रियों पर और अपने मन पर नियंत्रण करना चाहिए, क्योंकि इन दोनों पर संयम की आदत पड़ जाने से मनुष्य हर काम नियम से करना सीख जाता है।
हमें अपनी इन्द्रियों का गुलाम नहीं बनना चाहिए। हमारी इन्द्रियों के स्वाद हमें कठपुतलियों की तरह नचाते हैं। आँख, नाक, कान आदि सुन्दर दृश्य, अच्छी सुगन्धि, मीठा गाना आदि सुनने के लिए हमें अपने वश में करना चाहते हैं। हम अपने असली काम को छोड़कर इन स्वाद की वस्तुओं में पड़ जाते हैं। यही इन्द्रियों की गुलामी है। जो हमें नहीं करनी और निरंतर आत्मानुशासन का अभ्यास करना है जो उन्नति का साधन है।
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