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अक्सर कुछ लोग यह सोचकर मतदान करने से बचते हैं कि मेरा वोट कोई महत्व नहीं रखता। यह रवैया सही नहीं है। मतदान के अधिकार का प्रयोग न करने से अयोग्य उम्मीदवार एवं अक्षम सरकार बनने की आशंका बढ़ जाती है एवं लोकतांत्रिक प्रणाली अव्यवस्था की शिकार होती है, जिसकी कीमत सभी को चुकानी पड़ती है। तथ्य यह है कि मतदान अधिकार के साथ ही राष्ट्रधर्म भी है। अनेक राष्ट्र-नायकों ने भारत को लोकतंत्र की जननी बनाने के लिए बलिदान दिया है। मतदान कर हम उनके जीवन मूल्यों को जीवंत करते हैं। ऐसी सद्भावनाएं ही हमें मतदान के लिए प्रेरित कर सुयोग्य सरकार के गठन में अधिकतम जनभागीदारी सुनिश्चित करेंगी। वास्तव में यह संसदीय चुनाव भारत के लिए दुनिया के समक्ष अनुकरणीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया एवं राष्ट्रधर्म के उच्चतम आदर्श स्थापित करने का अवसर है, जिससे यह भावना दृढ़ हो जाए कि निःसंदेह भारत ही लोकतंत्र की जननी है।
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चुनाव का अर्थ सिर्फ प्रतिनिधि चुनना नहीं राघवेंद्र प्रसाद तिवारी, ( लेखक पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा के कुलपति हैं ) इस समय 18वीं लोकसभा के गठन के लिए चुनाव प्रक्रिया जारी है। राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए तमाम घोषणाएं और उम्मीदवारों का चयन कर रहे हैं। ऐसे में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक दृष्टि से लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिए चुनाव से संबंधित समस्त पहलुओं पर समग्रता से चिंतन-मनन करने का यह अनुकूल समय है। इस संदर्भ में दो यक्ष प्रश्न हमारे विचार-प्रक्रिया के केंद्रबिंदु में होने चाहिए। क्या उम्मीदवारों के चयन के लिए ‘जीतने की क्षमता’ एकमात्र मानदंड होना चाहिए? क्या मतदाताओं को प्रतिनिधियों को केवल स्वीकारने या अस्वीकारने के लिए मतदान करना चाहिए अथवा इससे परे विचार कर मताधिकार का प्रयोग करना चाहिए? सार्वजनिक जीवन में अनुभव, सद्कार्यों के जरिये जनता में लोकप्रियता, ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, पारदर्शिता, जन कल्याण के लिए प्रतिबद्धता एवं राष्ट्रहित आदि गुणों के आधार पर उम्मीदवारों का चयन होना चाहिए। निर्वाचित प्रतिनिधियों को विकास के एजेंडा के निर्धारण एवं क्रियान्वयन में सक्षम होना चाहिए। उनमें समावेशी एवं सतत विकास के लिए जरूरी विमर्श में जनआकांक्षाओं को रेखांकित करने की क्षमता होनी चाहिए। असल में चुनाव मतदाताओं के लिए कई विकल्प खोलते हैं। उनसे पता चलता है कि कौनसा राजनीतिक दल समसामयिक विषयों पर बेहतर कानून बना सकता है, लोककल्याण के लिए बेहतर निर्णय ले सकता है, समावेशी एवं टिकाऊ सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए नीतियां एवं कार्यक्रम बनाकर उन्हें प्रभावी ढंग से लागू कर सकता है। किस राजनीतिक दल में संसद एवं संसद के बाहर जनआकांक्षाओं को सर्वोत्तम तरीके से अभिव्यक्त करने का कौशल है। कौनसा दल वैश्विक शांति के लिए अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण को प्रभावित कर सकता है। यह भी देखना चाहिए कि कौनसे राजनीतिक दल राष्ट्रहित के मुद्दों को ताक पर रखकर मुफ्तखोरी की संस्कृति, जाति, संप्रदाय, धनबल, बाहुबल एवं अन्य प्रभावों के माध्यम से मतदाताओं को लुभा रहे हैं। चुनाव वास्तविक अर्थों में जनता के लिए राजनीतिक दलों द्वारा अपने घोषणा पत्रों में प्रस्तावित विभिन्न माडलों के बीच ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सुरक्षा, पर्यावरणीय, सामाजिक, भावनात्मक, नैतिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक, विदेश नीति एवं राष्ट्रहित आदि विषयों पर सहमति या असहमति व्यक्त करने का अवसर होते हैं। राजनीतिक दलों द्वारा प्रस्तुत इन विषयों से संबंधित सर्वोत्तम माडल को ही जनप्रतिनिधियों के चयन में प्राथमिकता मिलनी चाहिए। इससे जन एवं राष्ट्र-कल्याण के लिए नीति निर्माण एवं कार्यक्रमों के संदर्भ में राजनीतिक दलों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा पनपेगी। चुनाव अभियानों के दौरान राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों का इन बिंदुओं पर ही मूल्यांकन होना चाहिए। लोक कल्याण के लिए तत्पर, निष्पक्ष तरीके से सुशासन करने की क्षमता एवं राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नीतियों के बारे में सोचने तथा नवाचार करने की क्षमता ही उम्मीदवारों के चयन के लिए राजनीतिक दलों के साथ मतदाताओं की भी प्रमुखता होनी चाहिए। सार्वजनिक जीवन में जो लोग पुनः चयनित होना चाहते हैं, उन्हें जनता को लोकतंत्र और चुनावों के स्वस्थ तरीकों के बारे में शिक्षित करना चाहिए। प्रचार के दौरान उन्हें विकास एवं सुशासन का वैकल्पिक माडल पेश करना चाहिए तथा अपने पूर्व-प्रदर्शन के मूल्यांकन के लिए स्वयं को प्रस्तुत करना चाहिए। प्रबुद्ध समाज को भी सभी दलों के उम्मीदवारों के लिए साझा मंच उपलब्ध कराने चाहिए, जहां सघन विमर्श के द्वारा जनमानस राष्ट्रीय महत्व के बिंदुओं पर उनके सोच-समझ के आधार पर समुचित निर्णय ले सकें। राजनीतिक दलों को सही उम्मीदवारों के चयन के लिए बेहतर मानदंड चुनने के लिए बाध्य करने में नोटा सहायक नहीं है। राजनीतिक दलों ने इस प्रविधान से कतई सीख नहीं ली है। पाल टैमब्या नामक विद्वान का मत है कि ‘मतदान कोई विवाह नहीं है। यह एक सार्वजनिक परिवहन है। आप उसकी प्रतीक्षा नहीं कर रहे हैं। आप बस में चढ़ रहे हैं और यदि कोई बस आपके गंतव्य तक नहीं जा रही है, तो आप घर पर बैठकर उदास नहीं होते। आप वह बस चुनते हैं, जो आपको आपके गंतव्य के सबसे नजदीक ले जाए।’ इसका तात्पर्य है कि सर्वोत्तम विकल्प चुनाव से दूर रहना नहीं, अपितु ऐसे उम्मीदवारों का चयन है, जिसकी रीति-नीति आपके जीवन-मूल्यों के सन्निकट हो। इस संदर्भ में मतदाताओं को जागरूक करने के लिए मीडिया सार्थक भूमिका अदा कर सकता है। वह उन मुद्दों को रेखांकित करे, जिनसे जनमानस प्रभावित होते हैं और जिनसे उपलब्ध विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन करने में जनता को मदद मिले।
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हमारे यहां सक्षम राष्ट्रीय नेताओं के अभाव का मुख्य कारण यह है कि संसदीय प्रणाली राष्ट्रीय नेतृत्व के विकास की अपेक्षा ही नहीं करती। इसी कारण कुछ ऐसे नेता एकाएक प्रधानमंत्री बन गए, जिनकी देश ने कभी कल्पना भी नहीं की थी। आखिर किसने सोचा होगा कि देवेगौड़ा, गुजराल या मनमोहन सिंह कभी प्रधानमंत्री बनेंगे। गठबंधन सरकारें वास्तव में राजनीतिक सौदेबाजी करने वाले क्षत्रपों के लिए ही हितकारी होती हैं, जबकि 140 करोड़ की आबादी का विशाल देश ऐसी व्यवस्था चाहता है, जो उसकी समग्र शक्ति एवं क्षमताओं को अभिव्यक्ति दे सके। इसीलिए देश को पूर्ण बहुमत की सशक्त सरकार की अपेक्षा होती है। ऐसी ही सरकार राष्ट्रीय हित से जुड़े दायित्वों एवं लक्ष्यों को पूर्ण करने में समर्थ होती है। भारतीय लोकतंत्र अपनी समस्त शक्ति एकत्रित कर अपने आदर्श नेतृत्व को अधिक से अधिक जितना अधिकार दे सकता है, वह एक अमेरिकी राष्ट्रपति को स्वाभाविक रूप से उपलब्ध है। संसदीय प्रणाली में गठबंधन राजनीति, राजनीतिक जोड़तोड़ की कमजोरियां बाहरी दखल की आशंकाएं बढ़ाते हैं। हमारा देश तो स्वयं इसका मुक्तभोगी रहा है। मित्रोखिन आर्काइव्स भारतीय राजनीति में सोवियत संघ के दखल का आंख खोलने वाला दस्तावेज है। राष्ट्रपति प्रणाली जादू की छड़ी भी नहीं है, जो तत्काल सब कुछ सुधार देगी। इसलिए व्यवस्था के चौकीदारों को जागते रहना आवश्यक है। संसदीय प्रणाली सत्ता में भागीदारी की संभावना बढ़ाती है, लेकिन हमारे यहां जाति, संप्रदाय, क्षेत्रीय समूहों, दबंगों और भ्रष्टतंत्र के हितसाधकों एवं अलगाववादियों की भागीदारी बढ़ाने लगती है। कई क्षेत्रीय दलों में तो समग्र राष्ट्रीय दृष्टि होती भी नहीं है। भारत की अखंडता उनके लिए महत्व का मुद्दा नहीं बनती। वे कई बार तो विदेश नीति को भी अपने हिसाब से चलाने की कोशिश करते हैं। चूंकि राष्ट्रपति प्रणाली देश के नागरिकों से सक्षम राष्ट्रीय नेतृत्व विकसित करने की अपेक्षा करती है इसलिए देश को उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक जोड़ने वाले नेतृत्व के सक्षम चरित्र राष्ट्रीय फलक पर दिखने लगेंगे। उनकी संस्कृति की, भाषा की समझ बेहतर होगी। वे कभी बंगाल में, कभी तमिलनाडु में, कभी वनवासियों तो कभी तमिल मछुआरों के बीच रहने वाले होंगे। तब देश में वह राष्ट्रीय कर्मठ एवं समर्पित नेतृत्व आकार लेगा, जिसकी दृष्टि समस्त देश को समाहित किए हुए होगी। अच्छा होगा कि राजनीतिक खानदानों और क्षत्रपों के दिन चले जाएं। देश का ध्यान अपनी ओर खींचने वाला कोई नेता जब राष्ट्रपति शैली में चुनाव लड़ेगा तो देश के गांव-गांव में उन्हें वोट देने वाले मिलेंगे और फिर राष्ट्रीय नेतृत्व के विकास की राह स्वाभाविक रूप से प्रशस्त होगी।
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संसदीय प्रणाली की समस्याएं आर. विक्रम सिंह, ( लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी एवं पूर्व प्रशासक हैं ) देश में निर्वाचन पर्व चल रहा है। संभावना है कि एक दल की सरकार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आएगी। पूर्ण बहुमत की सरकारें वास्तव में हमारी संसदीय प्रणाली का ऐसा उच्चतम शिखर हैं, जो अपने स्वरूप में राष्ट्रपति प्रणाली वाली शासन पद्धति की अनुभूति कराती है। राष्ट्रपति व्यवस्था में आम जनता सीधे राष्ट्रपति के लिए वोट डालती है। हमारी व्यवस्था संसदीय है, किंतु व्यवहार में वह राष्ट्रपति वाली है। हम नरेन्द्र मोदी को ही प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में लड़ते हुए देख रहे हैं। भाजपा नेता उन्हीं के नाम पर वोट मांग रहे हैं। एक समय नेहरू जी और इंदिरा जी के नाम पर वोट मांगे जाते थे। यह व्यवस्था अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव जैसी ही है। जैसे नेहरू जी देश में कहीं से भी लड़कर चुनाव जीत सकते थे, वैसे ही आज मोदी भी कहीं से भी लड़कर जीत सकते हैं। बीते सात दशकों में देश ने संसदीय प्रणाली अनुभव लिया है। इसकी सीमाएं स्पष्ट हो रही हैं। उसमें कुछ अस्थिरता के लक्षण होते हैं, जबकि विकास के लिए स्थिरता आवश्यक है। सीमित आबादी एवं सीमित क्षेत्रफल के एक भाषाभाषी, एक सांस्कृतिक धार्मिक क्षेत्रीय स्वरूप के यूरोपीय देशों में संसदीय या वेस्टमिंस्टर प्रणाली सुविधाजनक व्यवस्था हो सकती है, किंतु भारत जैसे देश में जहां बहुलताएं हैं और इन बहुलताओं को राष्ट्रीयता के एक धागे में पिरोए रखना एक मूलभूत राष्ट्रीय आवश्यकता है, वहां देश में अमेरिकी प्रणाली पर भी एक बहस की जरूरत लग रही है। संसदीय प्रणाली के प्रारंभ में हमने नेहरू और इंदिरा जैसे सशक्त प्रधानमंत्री देखे हैं तो कालांतर में वीपी सिंह, चंद्रशेखर, देवेगौड़ा, चरण सिंह, इंद्रकुमार गुजराल जैसे कमजोर एवं मजबूर प्रधानमंत्री भी देखे। गठबंधनों के माध्यम से किसी प्रकार अपनी सरकार को बचाए रखना ही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी। कश्मीरी हिंदुओं के पलायन को रोकने में असहाय वीपी सिंह की प्राथमिकता अल्पसंख्यक राजनीति थी। राजीव गांधी को जैसे ही भनक लगी कि चंद्रशेखर रामजन्मभूमि मामले में समझौता कराने के निकट हैं तो उन्होंने समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा दी। देश ने मनमोहन सिंह जैसे गठबंधन धर्म को मजबूरी बताने वाले प्रधानमंत्री भी देखे हैं। राष्ट्रपतीय प्रणाली में बंधुआ राष्ट्रपति नहीं हो सकते। इसमें वैकल्पिक या गैरजिम्मेदार सत्ता केंद्र का विकास असंभव है। संसदीय प्रणाली के साथ समस्या यह है कि उसे राष्ट्रीय नेताओं की आवश्यकता नहीं है। देश का प्रधानमंत्री वही होगा, जिसके पक्ष में अधिकतम सांसद लामबंद हों। इसके लिए बहुत से दलीय हितों के घात-प्रतिघात, क्षेत्रीय एवं व्यक्तिगत स्वार्थों के समायोजन की योग्यता अपेक्षित है। राजीव गांधी, देवेगौड़ा, गुजराल और मनमोहन सिंह आदि का संघर्ष से उपजा राष्ट्रीय व्यक्तित्व नहीं था। गठबंधन सरकारों ने देश को अपने कद एवं क्षमता के अनुरूप खड़ा ही होने नहीं दिया। नेहरू गठबंधन राजनीति के दबाव से मुक्त थे। इसका उपयोग उन्होंने समाजवादी विकास माडल को ढालने में और पंचवर्षीय योजनाओं में लगाया। इस प्रकार देश को एक सशक्त औद्योगिक आधार देने का काम किया। वर्तमान में नरेन्द्र मोदी भी गठबंधन के दबाव की मजबूरियों से मुक्त हैं। इसका परिणाम हम पिछले दस वर्षों में प्रभावशाली हो रहे भारत के रूप में देख रहे हैं। इन दोनों नेताओं का राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व ऐसा रहा कि उन्होंने प्रधानमंत्री पद की सीमाओं से आगे जाकर उसे गरिमा प्रदान की। हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि गठबंधन सरकार चलाने वाले अधिकांश प्रधानमंत्रियों को तरह-तरह के समझौते करने पड़े।
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भारत के लिए सेमीकंडक्टर चिप विनिर्माण का सुनहरा अवसर कुछ समय से भारत सरकार सेमींकडक्टर को अपने विनिर्माण की महत्वकांक्षा के केंद्र में रखकर चल रही है। फिलहाल पूरे विश्व को सेमींकडक्टर चिप की आपूर्ति मुख रूप से ताईवान करता है। हाल ही में वहाँ आए भूकंप के कारण उसका यह उद्योग खतरे में पड़ गया है। भारत के लिए इस क्षेत्र में आगे बढ़ने का यह अच्छा अवसर है। इस पर कुछ बिंदु – ताइवान भारत को चिप मेकिंग तकनीक तक प्रमुखता से पहुंच प्रदान करता है। चीन की छाया में काम कर रहे ताइवान के चिप निर्माताओं के लिए, भारत की प्रगति की योजना एक अच्छा प्रस्ताव लगता है। ‘चाइना प्लस वन’ नीति में बहुत से पश्चिमी देश अब सेमीकंडक्टर जैसे महत्वपूर्ण घटक के विनिर्माण और लचीली आपूर्ति के लिए चीन का विकल्प चाहते हैं। इस संबंध में टाटा समूह ने ताइवान के पीएसएमसी के साथ गुजरात में एक ईकाई बनाने का समझौता भी कर लिया है। इन सभी दृष्टिकोणों से भारत में सेमीकंडक्टर चिप विनिर्माण का भविष्य उज्जवल कहा जा सकता है। इसका लाभ उठाया जाना चाहिए। ‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित।
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सेमीकंडक्टर संयंत्र हाल ही में भारत सरकार ने तीन सेमीकंडक्टर इकाइयों की स्थापना को मंजूरी दी, जिनमें भारत का पहला सेमीकंडक्टर फैब्रिकेशन संयंत्र शामिल होगा। इस उद्योग को स्थापित करने की जरूरतें निम्नलिखित हैं – डिजाइन इंजीनियर उद्योग के लिए फैब्रिकेशन सेंटर चिप बनाना – इसकी टेस्टिंग, मार्किंग, पैकेजिंग करके अंतिम उत्पाद बनाना बेहद सूक्ष्मता व अत्यंत सफाई से काम करने वाली प्रौद्योगिकी भारत के पास ये सभी इकोसिस्टम हो गए हैं। दुनिया में जितने सेमीकंडक्टर उद्योग से जुड़े इंजीनियर हैं, उनमें से एक तिहाई भारत में ही हैं। सेमीकंडक्टर इकाइयों की स्थापना से होने वाले लाभ – इन इकाइयों से करीब 20,000 उन्नत प्रौद्योगिकी की नौकरियों और करीब 60,000 अप्रत्यक्ष नौकरियों का सृजन हो सकता है। फैब कारखानों में निवेश से कंपोनेंट और एसिलरी विनिर्माण को भी बढ़ावा मिलेगा। घर के पर्दे और स्विच बोर्ड से लेकर इलेक्ट्रिक कार और रॉकेट में चिप का इस्तेमाल होने लगा है। ईवी और प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल बढ़ने से इसकी मांग और बढ़ेगी। आगे की राह – देश में लगने वाले संयत्रों की रोजाना निगरानी करनी होगी, ताकि उन्हें समय पर स्थापित किया जा सके। इन संयंत्रों के साथ लगने वाली (सहायक) इकाइयों की चरणबद्ध तरीके से स्थापना करना। वैश्विक आपूर्ति श्रंखलाओं में कमजोरियों को देखते हुए भारत के लिए यह ज्यादा अहम हो गया है कि विभिन्न क्षेत्रों के लिए आवश्यक इलेक्ट्रोनिक घटकों की स्थिर आपूर्ति सुनिश्चित की जाए। इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए यह अहम है कि भरोसेमंद बिजली आपूर्ति, जल संसाधन और परिवहन नेटवर्क जैसे बुनियादी ढांचे की अड़चनों को दूर करने पर ध्यान केंद्रित किया जाए। इस क्षेत्र की सफलता के लिए सरकारी संरक्षण और निजी क्षेत्र के निवेश, दोनों की आवश्यकता होगी।
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आर्थिक असमानता और भारत विश्व प्रसिद्ध अर्थशास़्त्री थॉमस पिकेटी का मानना है कि आर्थिक असमानता एक समस्या है, और अमीरों पर उच्च कर लगाना ही इसका समाधान है। उन्होंने असमानता को वैश्विक समस्या के रूप में पेश करने के लिए दुनियाभर के समाजविज्ञानीयों को शामिल किया है। भारत के संदर्श में – पिकेटी की यह अवधारणा पश्चिमी वामपंथियों के बीच चर्चा का गंभीर मुद्दा हो सकती है, लेकिन भारत के नीति निर्माताओं के लिए यह कोई चिंता का बड़ा विषय नहीं होना चाहिए। क्यों ? हमारी सबसे बड़ी आर्थिक चुनौती निकट भविष्य में करोड़ों लोगों के लिए धारणीय विकास और अवसर पैदा करना है। भारत में 1991 के बाद से ही आर्थिक विकास, मुक्त बाजार और आर्थिक वैश्वीकरण का युग शुरू हुआ है। पिकेटी के अनुसार यह बढ़ती असमानता के युग की शुरूआत थी, जबकि भारत के लिए यह ऐतिहासिक काल था। पिछले दो दशकों में लगभग 40 करोड़ से ज्यादा भारतीयों ने खुद को गरीबी से बाहर निकाला है। यह एक ऐसी उपलब्धि है, जिसकी बराबरी चीन से की जा सकती है। इसकी तुलना अगर 1947 के बाद के तीन दशकों से करें, जब गरीबी में रहने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई थी। असमानता तब कम थी, क्योंकि लोग समान रूप से गरीब थे। इसकी तुलना ब्रिटिश राज से करें, जिसके दौरान जनता गरीबी और अकाल में डूब गई थी। अतः यह कहना सरासर गलत है कि आज के भारतीय औपनिवेशिक और समाजवादी काल की तुलना में बदतर हैं। वर्तमान भारत के सभी किसान इसलिए गरीब नहीं कहे जा सकते, क्योंकि वे आयकर के दायरे से बाहर हैं। रियल एस्टेट और सोने में निवेश की गई संपत्ति की गणना करना मुश्किल है। इसके अलावा भारत में आय और संपत्ति को कम करके दिखाने के अपने लाभ हैं। गरीब की श्रेणी में आपको कई तरह की सब्सिडी और प्रोत्साहन मिल जाते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि आर्थिक सुधारों के बाद असमानता नहीं बढ़ी है। बेंगलुरू में काम करने वाले एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर की उत्पादकता और आय उत्तर प्रदेश के एक ग्रामीण कृषि मजदूर की तुलना में कई गुना अधिक हुई है। लेकिन आर्थिक असमानता अपने आप में समस्या नहीं कही जा सकती है। समस्या इसके प्रभावों में है। अनुभवजन्य साक्ष्य दर्शाते हैं कि उच्च समानता कुछ मामलों में उच्च वृद्धि का कारण बन सकती है, और अन्य में इसके विपरीत भी हो सकता है। भारत के संदर्भ में हमें चिंता यह करनी चाहिए कि क्या गरीबों की कीमत पर अमीर और अधिक अमीर हो रहे हैं? कुछ बिंदु – इस प्रश्न के उत्तर में कोई ठोस डेटा उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन देश में वेतनभोगी और अपना काम करने वाले लोगों की गतिविधियों से भी बहुत कुछ समझा जा सकता है। (1) देश में बड़े पैमाने पर कोई विरोध प्रदर्शन नहीं हो रहे हैं। (2) लोग बेहतर अवसर की तलाश में कम आर्थिक असमानता वाले क्षेत्रों से उच्च असमानता वाले क्षेत्रों में जा रहे हैं, क्योंकि वे अपना विकास चाहते हैं। (3) देश में नीतिगत विकास हो रहा है, जो राष्ट्रीय राजमार्गों, रेलगाड़ियों, हवाई अड्डों और जीएसटी के माध्यम से बनने वाले एक राष्ट्रीय बाजार में देखा जा सकता है। इन सबने जनता की आय बढ़ाने और असमानता को कम करने के लिए चलाई जाने वाली किसी भी पुनर्वितरण योजना की तुलना में बहुत अधिक काम किया है। आर्थिक असमानता के नकारात्मक प्रभावों से कैसे निपटा जा सकता है? बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ाई जानी चाहिए। लोगों को कौशलयुक्त बनाकर अवसर प्राप्त करने के योग्य बनाया जाना चाहिए। बाजार की शक्ति केंद्रित न हो। सार्वजनिक नीति ऐसी हो कि उसकी योजनाओं की रकम भ्रष्टाचार की भेंट न चढ़ जाए। इन सबके लिए राजकोषीय नीति की जगह प्रतिस्पर्धा कानून, क्षेत्रीय सुधार और पारदर्शिता की आवश्यकता है। ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित पवन पई के लेख पर आधारित।
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वर्तमान अर्थव्यवस्था पर कुछ तथ्य सन् 2008 को छोड़कर, जब पूरी दुनिया विश्व मंदी की चपेट में थी, भारत ने प्रतिवर्ष लगातार लगभग 8% की वृद्धि प्राप्त की। वर्तमान में यह 7.6% के आसपास है। यह अत्यंत सराहनीय है। भारत में किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनायें लगातार बढ़ रही है। सन् 2022 में यह 11,290 के शिखर पर थी। इसका मूल कारण कर्जा का बोझ और गरीबी है। देश में सन् 1994 से लगातार युवा-बेरोजगारी की दर बढ़ रही है। यह तब के 11.9% से बढ़कर 2022 में 29% हो गई है। भारत में निवेश की दर सन् 2006 में सर्वाधिक 38% थी, जो लगातार गिरती हुई 2022-23 में 27.9% रह गई है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि ऐसा बड़े व्यवसायों एवं सरकार के बीच सांठगांठ के कारण हो रहा है। आज हमारा पूरा ध्यान इस बात पर है कि हम 5 ट्रिलियन डालर की इकॉनामी कैसे बनें, और कुल राष्ट्रीय आय के मामले में जर्मनी से कैसे आगे निकलें। लेकिन हम इस बारे में शायद ही कभी बात करते हैं कि इस आय का लोगों में कैसे वितरण हो। विश्व बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री कौशिक बसु के विचारों पर आधारित।
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