मैं सोच रहा हूं
शायद मैं सोच तो रहा था,
क्या अब नहीं हो सकता...?
पर अब वो पानें की इच्छा है भी और नहीं भी,
ख़ुद को भी जान पाने का नया चस्का है देखते हैं कब तक चलता है😀
ज्यादा तो नहीं टिकेगा मेरी खुशियों की तरह, या हो सकता है ये टिका रहे मेरे आत्मविश्वास की तरह।
हो तो सकता है।
पहले तो सबसे लडने को तैयार रहता था मैं, उसके लिए, वो चाहिए, वो चाहिए ही, ऐसा वाला दृश्य था। अब क्या हो गया?
लग रहा है मैं उसे जानने लग गया। शायद ज्यादा ही जानने लग गया। Philosophy में ऐसा कहते होंगे, मुझे तो नहीं पता, कि हद से ज्यादा जान जाना, आकर्षण कम करता होगा।
मुझे ऐसा लगता तो है पर हर मसअले के लिए नहीं, हर रिश्ते के लिए ये लागू कहां होता है।
किताबों को ही देख लें अगर तो ऐसा कई किताबों के साथ हुआ है की मैंने उन्हें कई बार पढ़ा, 5-6-7 और तड़प कम नहीं हुई।
हर दफा और बेहतर समझ में आई बात, कहानी और प्रखर हुई। पात्र बात करते नजर आए, आपस में नहीं, मुझसे।
बताते नजर आए अपनी वो भी कहानी जो किताब में शायद लेखक लिखना भूल गया हो, या वो जिसे मेरे अलावा कोई नहीं समझ सकता, लेखक भी नहीं।
असल जिंदगी के रिश्तों की एक खराबी है ये, की ज्यादा जान लेना समस्यात्क बन सकता है। पर वक्त की आदत है हर छोटे घाव भर देता है, ऐसा सुनने में आता है।
मेरे मम्मी पापा से भी कभी कभार बहस होती है, विचार अलग होते हैं, चिढ़ हो जाती है उस समय के छोटे हिस्से में, फिर ठीक हो जाता है सब। बिल्कुल पहले की तरह।
मैं नहीं मानता की रिश्ते में अगर गलतफहमी हो गई है तो वो रस्सी की गांठ को तरह हमेशा दिखाई या जनाई देगी। नहीं। कुछ ही वक्त बाद वो टूटे हिस्से आपस में मिलकर एक हो जाते हैं, पहले की तरह, या शायद पहले से ज्यादा मजबूत।
हो ही जाते होंगे, मैनें 10-15 बार प्रयास किया, शायद सफल रहा। हां, रहा तो।
शायद कुछ बार नहीं भी रहा, क्या फ़र्क पड़ता है, लेकिन कभी कभी चुभन, तड़प, पश्च्याताप नज़र आता है।
हां तो लगाव कुछ कम हो गया तो क्या, कुछ दिन बाद अपनें आप दिमाग़ ठिकाने आ जाता है, अपनी हालत, अपनी शक्ल, अपनी जिंदगी और अन्य रिश्ते देखकर।
लगाव कम हुआ होगा, होता है, होता रहेगा शायद उससे क्या। आगे जो होगा उम्मीद है अच्छा ही होगा... !!